🧐चकरघिन्नी टुडे
🎯खान अशु 9827806215
दिलदारी के साथ सच कहने की सज़ा का भुगत रहे जीतू भाई किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं उनका कैरेक्टर. शहर के सबसे बड़े ज्वेलर्स के बगावती बेटे ने इंदौर से मुंबई का सफर शुरू किया था, तब सोचा भी नहीं होगा कि मायानगरी से वापस आने तक जितेन्द्र से जीतू बन जाएंगे...! शहर या सूबे के पहले कैबरे डांस वाला माय होम, शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर खड़े होकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर रिवाल्वर तान देने से लेकर उस दौर के सुपर सीएम कहे जाने वाले के खिलाफ खुली बगावत कर बैठना महज एक शुरुआत कही जा सकती है...! अखबार में सच को दबंगता से पेश करने की खास अदा भी जीतू भाई की हिम्मत का ही नतीजा कहा जा सकता है...! तीन दशक से ज्यादा के इस सफर में कई की कलई उतारी, कई को नँगा किया, कई को असल चेहरा दिखाने की जुर्रत उन्होंने की काले दागदार चेहरों को जब सरकारी और सियासी धूल ने अपनी आगोश में लेना शुरू किया तो फिर ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लादने की पहल जीतू भाई को ही करना पड़ी अफसरों की रंगीन मिजाजी के सिलसिलेवार किस्सों ने अखबार के पन्नों पर जगह पाना शुरू की तो सियासत के माथे शिकन पैदा होने लगीं ताबड़तोड़ जो फैसले हुए, वह सरकारी किरदार के एक नए अध्याय की शुरुआत बन गया जीतू भाई विलेन बन गए, उनके लिए 'हनी ट्रेप' से निकला जाल अपराधों का शहंशाह करार देने वाला साबित हो गया...! पिछली सरकार के काले चेहरों को छिपाने में मौजूदा हुक्मरानों की ध्वल सूरतें सक्रिय दिखाई देने लगी हैं...! चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत चरितार्थ करने में लगी चौकड़ी के सुर में सुर मिलाता मतलब की रोटियां सेंकने वाला मीडिया भी अपने हमपेशा को पतित, घिनोना और घृणित करार देने में जुटा दिखाई दे रहा है जीतू भाई के सामने ठीक से खड़े न हो पाने वाले उनकी शख्सियत की कालिख को चुनचुनकर उकेरते नजर आ रहे हैं इस बीच इस बात को भुला दिया जाता है कि जीतू भाई के जिस मीडिया हाउस को काल कोठरी बताया जा रहा है, वहां से निकले कई हीरे देश के बड़े मीडिया संस्थानों को जगमगा रहे हैं जिस जीतू भाई को खूंखार और बदनुमा बताया जा रहा है, उसका कोमल दिल अपने कर्मचारियों को नोकर से बढ़कर अपना साथी, अपना परिवार, अपना हमदम मानकर उनकी हर परेशानी में खड़ा दिखाई दिया है...! शहर को गरबा महोत्सव की सौगात देने से लेकर हर होली अपने अखबारी साथियों में मस्त हो जाना भी जीतू भाई के जीवन का अंग रहा है मुछल्ला इस खामोशी को हार मान लिया जाए? एक मीडिया संस्थान से उठने वाले सच को दबाने में सरकारी तंत्र जुटा है, सियासी रसूख़ लगा है। इनकी आवाज़ को बल देने में मीडिया का ही एक धड़ा लगा है। पत्रकार संगठनों की खामोश हथियार डलाई ने साबित कर दिया कि इस सूबे को पत्रकार सुरक्षा जैसे कानून की न ज़रूरत थी, न कभी होगी, क्योंकि इन्हें खतरा किसी बाहरी से ज़्यादा अपने बीच के लोगों से ही है